नीतिशतक9️⃣🔟

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यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्ध समभवम्,                       तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।                              यदा बुधजनसकाशाद् किञ्चित् अवगतम्                        तदा मूर्योऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः॥9॥      

,अन्वयः-यदा अहं किञ्चिज्ज्ञः तदा द्विपः इव मदान्ध समभवम्। (तथा) सर्वज्ञ अस्मि इति मम मनः अवलिप्तम्। यदा बुधजनसकाशाद् किञ्चित् अवगतम्, तदा मूर्खः अस्मि इति मे मदः ज्वरः इव व्यपगतः ।

शब्दार्थ एवं व्याकरण-यदा = जब । अहम् = मैं। किञ्चिज्ज्ञः = (किंचित् + ज्ञ व्यंजन सन्धि) कुछ-कुछ जानने वाला। तदा तब। द्विपः इव = हाथी की तरह। मदान्धः = मदेन अन्धः तृतीया त०पु० समास) अभिमान से चूर। समभवम् = (सम् + अभवम्) हो गया। सर्वज्ञः अस्मि इति = मैं सब कुछ जानता हूँ इस प्रकार से। मम मनः = मेरा मन। अवलिप्तम् = अहंकारी हो गया। यदा = जब। बुधजनसकाशात् = विद्वान् लोगों के संग से। किञ्चित् = कुछ। अवगतम् = जाना (ज्ञान प्राप्त किया)। तदा = तब। मूर्खः = अज्ञानी। अस्मि हूँ। इति = ऐसा जानकर। मे = मेरा। मदः = अभिमान (ज्ञानी होने का अभिमान)। ज्वरः इव = बुखार की तरह । व्यपगतः = दूर हो गया (वि + अप् + गम् + क्तः)

हिन्दी-अनुवाद-अल्पज्ञों के अभिमान की चर्चा करते हुए भर्तृहरि जी कहते हैं कि जब मैंने थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त किया, तो मैं हाथी की तरह अभिमानग्रस्त हो गया और मैं सर्वज्ञ हूँ ऐसा अभिमान मेरे मन में समा गया। परन्तु जब विद्वानों के संग से कुछ और ज्ञान प्राप्त किया तो मुझे लगा कि मैं तो मूर्ख हूँ अर्थात् बहुत ही कम ज्ञान रखता हूँ तब मेरा वह मिथ्याभिमान ज्वर की तरह उतर गया।

भावार्थ यह कि हमें थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त करके अभिमानी नहीं हो जाना चाहिए क्योंकि ज्ञान अनन्त है। उसे जितना पाओ उतना ही थोड़ा। इसलिए नित्य ज्ञानार्जन करते रहना चाहिए।

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कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितम्,।          निरुपमरसं प्रीत्या खादन्खरास्थिं निरामिषम्,                  सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते,।                       न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ॥10॥     

 अन्वय--कृमिकुलचितं लालाक्लिनं विगन्धि जुगुप्सितं निरामिषं निरुपमरसं खरास्थिं प्रीत्या खादन् श्वा पार्श्वस्थं सुरपतिम् अपि विलोक्य न शंकते। हि क्षुद्रः जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् न गणयति।

शब्दार्थ एवं व्याकरण-कृमिकुलचितम् = (कृमिणां कुलम् = कृमिकुलम् षष्ठी तत्पु० स० कृमिकुलेन चितम् तृतीया तत्पु० स०) कीड़ों के समूह से व्याप्त। लालाक्लिन्नम् = लार से भीगी हुई। विगन्धिः = दुर्गन्धयुक्त। जुगुप्सितम् =घृणा योग्य। निरामिषम् = (निर् + आमिषम्) माँस से रहित। निरुपमरसम् = विचित्र स्वादवाली। खरास्थिम् = गधे की हड्डी को। प्रीत्या = प्रेमपूर्वक। खादन् = खाता हुआ (खाद् + शतृ)। श्वा कुत्ता। पार्श्वस्थम् = समीपस्थ। सुरपतिम् अपि = (सुराणां पतिः सुरपतिः तम् षष्ठी तत्पु० स०) देवराज इन्द्र को भी। विलोक्य = (वि + Vलोकृ + क्त्वा) देखकर। न शंकते = शंकित (भयभीत) नहीं होता है। हि = क्योंकि । क्षुद्रः जन्तुः = नीच प्राणी। परिग्रहफल्गुताम् (परिग्रहस्य फल्गुताम् षष्ठी तत्पु० समास) प्राप्त की हुई वस्तु की व्यर्थता को। न गणयति = नहीं सोचता है।

हिन्दी-अनुवाद-दुष्टों एवं लोभियों की प्रवृत्ति को दर्शाते हुए भर्तृहरि जी कहते हैं कि कीड़ों से युक्त, लार से भीगी हुई, दुर्गन्धयुक्त, माँसरहित, विचित्र स्वाद वाली रासभ की हड्डी को प्रेमपूर्वक खाते हुए कुत्ता समीपस्थ देवराज इन्द्र की भी परवाह नहीं करता है। क्योंकि निकृष्ट प्राणी स्वीकृत वस्तु या कार्य की व्यर्थता के विषय में विचार नहीं करते।

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  1. Name Priyanka devi
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  6. Sejal kasav
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  15. Kajal pathania major history sr no 14

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  24. Name Simran kour
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