मंत्र 1️⃣1️⃣,,1️⃣2️⃣,,1️⃣3️⃣,,1️⃣4️⃣,,1️⃣5️⃣

 इधर एक है और इस पृथिवी से दूर दूसरा है। ये दोनों अग्नि इन पृथिवी और द्युलोक के बीच में मिलते हैं। उनकी बलवान् किरणें फैलती हैं। ब्रह्मचारी तप उन किरणों का अधिष्ठाता होता है।11।

गर्जना करने वाला भूरे और काले रंग से युक्त बड़ा प्रभावशाली ब्रह्म अर्थात् उदक को साथ ले जाने वाला मेघ भूमि का योग्य पोषण करता है तथा पहाड़ और भूमि पर जल की वृष्टि करता है। उससे चारों दिशाएं जीवित रहती हैं।12।

अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, जल इनमें ब्रह्मचारी समिधा डालता है। उनके तेज पृथक-पृथक मेघों में संचार करते हैं। उनसे वृष्टि-जल, घी और पुरुष की उत्पत्ति होती है।। 3 ।

आचार्य की मृत्यु, वरुण, सोम, औषधि तथा पयरूप है। उसके जो सात्त्विक भाव हैं, वे मेघरूप हैं; क्योंकि उनके द्वारा ही वह स्वत्त्व रहा है।14।

एकत्व, सहवास, केवल शुद्ध तेज करता है। आचार्य वरुण बनकर प्रजापालक के विषय में जो-जो चाहता है, उसको मित्र ब्रह्मचारी अपनी आत्मशक्ति से देता है।15।

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