पद्मपुराण,,padmapurana
पद्मपुराणम्
पुराणों की सूची में इस वैष्णव पुराण का दूसरा क्रमांक है किन्तु देवीभागवत में 14 वां है। इसकी श्लोकसंख्या 55 हजार और कुल अध्याय 641 हैं। इसके दो संस्करण प्राप्त होते हैं। देवनागरी व बंगाली। पुणे के आनंदाश्रम से सन 1894 ई में बी. एन. मंडलिक द्वारा यह पुराण 4 भागों में प्रकाशित हुआ था इसमें 6 खंड- 628 अध्याय और 48452 श्लोक हैं। इसके उत्तर खंड में मूलतः 4 ही खंडों का उल्लेख है। 6 खंडों की कल्पना परवर्ती है। "पद्मपुराण" की श्लोकसंख्या 55 हजार कही गई है, जबकि "ब्रह्मपुराण" के अनुसार इसमें 59 हजार श्लोक हैं। इसी प्रकार खंडों के क्रम में भी भिन्नता दिखाई देती है। बंगाली संस्करण हस्तलिखित पोथियों में ही प्राप्त होता है जिसमें 5 खंड हैं।
1) सृष्टि खंड- इसका प्रारंभ भूमिका के रूप में हुआ । इसमें 82 अध्र्याय हैं। इसमे लोमहर्षण द्वारा अपने पुत्र उप्रश्रवा को नैमिषारण्य में सम्मिलित मुनियों के समक्ष पुराण सुनाने के लिये भेजने का वर्णन है, और वे शौनक ऋषि के अनुरोध पर उपस्थित ऋषियों को पद्मपुराण की कथा सुनाते हैं। इसके इस नाम का रहस्य बताया गया है कि इसमें सृष्टि के प्रारम्भ में कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति का कथन किया गया था। सृष्टि खंड भी 5 पवयों में विभक्क है। इसमें इस पृथ्वी को "पद कहा गया है तथा कमल- पुष्य पर बैठे हुए ब्रह्मा द्वारा विस्तृत ब्रह्मण्ड की सृष्टि] का निर्मण करने के संबंध में किये गये संदेह का इसी कारण निराकरण किया गया है कि पृथ्वी कमल है।
क) पौष्कर पर्व इस खंड में देवता, पितर, मनुष्य व मुनिसंबंधी 9 प्रकार की सृष्टि का वर्णन किया गया है सृष्टि
के सामान्य वर्णन के पश्षात् सूर्यवंश का वर्णन है। इसमें
पितरों व उनके श्राद्धों से संबंद्ध विषयों का भी विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसमें देवासुर-संग्राम का भी वर्णन है। इसी खेड में पुष्कर तालाब का वर्णन है जो अ्रह्मा के कारण पवित्र माना जाता है। उसकी, तीर्थ के रूप में बंदना भी की गई है ।
ख) तीर्थपर्व- इस पर्व में अनेक तीथों, पर्वतों, द्वीपों व
सप्तसागरों का वर्णन किया गया है। इसके उपसंहार में कहा
गया है कि समस्त तीर्थों में श्रीकृकण भगवान् का स्मरण ही
सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है व इनके नाम का उच्चारण करने वाले व्यक्ति
सारे संसार को तीर्थमय बना देते है-
(तीर्थानां तु परं तीर्थ कृष्णनाम महर्षयः ।
तीर्थीकुर्वन्ति जगती गृहीते कृष्णनाम यैः ।।
ग) तृतीय पर्व- इस पर्व में दक्षिणा देने वाले राजाओं
का वर्णन किया गया है तथा चतुर्थ पर्व में राजाओं का
वंशानुकीर्तन है।
अंतिम पंचम पर्व में मोक्ष व उसके साधन वर्णित हैं ।
इसी खंड में निम्न कथाएं विस्तारपूर्वक वर्णित है समुद्रमंन,
पृथु की उत्पत्ति, पुष्करतीर्थ के निवासियों का धर्म- वर्णन,
वृत्रासुर-संग्राम , वामनावतार, मार्कण्डेय व कार्तिकेय की उत्पत्ति,राम-चरित तथा तारकासुर-वध। असुर संहारक विष्णु की कथा एवं स्कद के जन्म व विवाह के पशत् इस खेंड की समाप्ति होती है।
2) भूमिखंड - इसका प्रारंभ सोमशर्मा की कथा से होता
है जो अंततः विष्णुभक्त प्रह्ाद के रूप में उत्पन्न हुआ। इसमें भूमि का वर्णन व अनेकानेक तीथो की पवित्रता की सिद्धि के लिये अनेक आख्यान दिये गये हैं इसमें सकुला की
एक कथा का उल्लेख है, जिसमें दिखाया गया है कि किस
प्रकार पत्नी भी तीर्थ बन सकती है। इसी खंड में राजा पृथु,
वेन, ययाति आदि के अध्यात्मसंबंधी वातालाप तथा विष्णुभक्ति की महनीयता का वर्णन है। इसमें च्यवन ऋषि का आख्यान तथा विष्णु व शिव की एकता विषयक तथ्यों का विवरण है।
इस खंड इसमें अनेक देवलोकों देवता, बैकुंठ, भूतों पिशाचों,
विद्याधरों, अपार व यक्षों के लोकों का विवरण है। इसमें
अनेक कथाए व उपाख्यान है, जिनमें सुप्रसिद्ध शकुंतलोपाख्यान भी है जो महाभारत की कथा से भिन्न व महाकवि कालिदास के "अभिज्ञान-शाकुंतल" के निकट है अप्सराओं उनके लोकों का वर्णन में राजा पुरुरवा व ऊर्वशी का उपाख्यान भी वर्णित है। इसमें कर्मकांड, विष्णु-पूजापद्धति, वर्णाश्रम-धर्म व अनेक आचारों का भी वर्णन है।
4) पातालखेंड- इस में नागलोक का वर्णन है तथा
प्रसंगवश रावण का उल्लेख होने कारण इसमें संपूर्ण रामायण की कथा कह दी गई है। रामायण की यह कथा महाकवि कालिदास के "रघुवंश" से अत्यधिक साम्य रखती है।
"रामायण" के साथ इसकी समानता आंशिक ही है। इसमें
श्रृंगी ऋषि की भी कथा है जो "महाभारत" से भित्न ढंग
से वर्णित है। "पद्मपुराण" के इस खंड में भवभूति कृत
"उत्तर-रामचनित्र" की कथा से साम्य रखने बाली उत्तर-रामचरित की कथा वार्णित है। इसके बाद अष्टादश पुराणों का वर्णन विस्तारपूर्वक करते हुए "श्रीमद्भागवत" की महिमा का लोकप्रिय आख्यान किया गया है।
5) उत्तर खंड- यह सबसे बड़ा खंड है मुद्रित उत्तर
खंड के 282 अध्याय हैं जब कि वंगीय प्रति में केवल
172 है। इसमें नाना प्रकार के आख्यानों, वैष्णव धर्म से
संबंध व्रतों व उत्सवों का वर्णन किया गया है। विष्णु के
प्रिय माघ एवं कार्तिक मास के व्रतों का विस्तारपूर्वक वर्णन
कर शिव-पार्वती के वार्तालाप के रूप दी गई है। उत्तर खंड में परिशिष्ट के रूप में "क्रियायोग-सार"नामक अध्याय में विष्णु भक्ति का महत्त्व बतलाते हुए गंगा-स्नान एवं विष्णु संबंधी उत्सवों की महत्ता प्रदर्शित की गई है। उत्तर खंड इस नाम से सी सिद्ध होता है कि यह खंड मूल पुराण को बाद में जोडा गया किन्तु किस काल में इसमें रामानुज के मत का उल्लेख है, अतः इस खंड की रचना रामानुजाचार्य के पश्चात् ही हुई यह स्पष्ट है प्रस्तुत खंड में
द्रविड देश के राजा की कथा है यह राजा पहले वैष्णव
था किंतु शैवों के आग्रही मत के प्रभाव में आकर उसने
वैष्णव धर्म का त्याग किया यही नहीं, उसने अपने राज्य
में स्थापित विष्णु की मूर्तियों को उठवाकर फेंक दिया, विष्णु
के मंदिर बंद करवा दिये और अपने प्रजाजनों को शैव बनने
के लिये बाध्य किया। श्री अशोक चक्रवर्ती नामक एक विद्वान् के मतानुसार यह राजा था चोलवेंशीय कुलोतुंग (द्वितीय) । शैवों के प्रभाव से वह वीरशैव बना। उसके राज्यारोहण का काल है सन 1133 । इससे स्पष्ट होता है कि उत्तरखंड की रचना इस काल के पक्षात् ही हुई होगी।
राम व कृष्ण कथा "पद्यपुराण" वैष्णव मत का प्रतिपादन करनेवाला पुराण है जिसमें भगवन्नाम-कीर्तन की विधि व नामापराधों का उल्लेख है। इसके प्रत्येक खेड में भक्ति की महिमा गायी है तथा भगवत्स्मृति, भगवत्तत्वज्ञान व भगवतत्वसाक्षात्कार को ही मूल विषय मानकर उसका व्याख्यान किया गया है- श्राद्धमाहात्म्य, तीर्थमहिमा आश्रमधर्म- निरूपण, नाना प्रकार के ब्रत व स्नान,
यान व तर्पण का विधान दानस्तुति, सत्संग का माहात्य
दीर्घायु होने के सहज साधन त्रिदेवों की एकता मूर्तिपूजा,
आहाण व गायत्री मंत्र का महत्व, गौ व गोदान की महिमा,
द्विजोचित आचार-विचार, पिता एवं पति की भक्ति, विष्णुभक्ति, अद्रोह, पंच महायजञों का माहात्म्य कल्यादान का महत्व, सत्यभाषण व लोभत्याग का महत्व, देवालयों का निर्माण, पोखरा खुदवाना, देवपूजन का महत्व, गंगा, गणेश, व सूर्य की महिमा तथा उनकी उपासना के फलों का महत्व, पुराणों की महिमा, भगवत्राम, ध्यान, प्राणायाम आदि। साहित्यिक दृष्टि से भी इस पुराण का महल्व असंदिग्य है। इसमे अनुष्टुप् के अतिरिक्त वडे-बड़े छंद भी प्रयुक्त किये गये हैं।
"पदापुराण" के कालनिर्णय के संबंध में विद्वानों में एकमत
नहीं है। "श्रीमद्भागवत" का उल्लेख, राधा के नाम की
चर्चा, रामानुज मत का वर्णन आदि के कारण इसे रामानुज
का परवर्ती माना जाता है। अशोक चैटर्जी के अनुसार इसमें
राधा के नाम का उल्लेख हितहरिवंश द्वारा प्रवर्तित "राधावल्लभ संप्रदाय" का प्रभाव सिद्ध करता है। इस संप्रदाय का समय ई. 16 वीं शती है। अत: "पद्मपुराण" का उत्तरखंड 16 वीं शताब्दी के बाद की रचना है। विद्वानों का कथन है कि "स्वर्गखंड" में शर्कुंतला की कथा महाकवि कालिदास से प्रभावित है तथा इस पर "रघुवंश" व "उत्तर-रामचरित" का भी प्रभाव है। अतः इसका रचनाकाल 5 वीं शती के बाद का है। कालिदास ने "पद्मपुराण" के आधार पर ही "अभिज्ञान-शाकृतल" की रचना की थी, न कि उनका
पदमपुराण" पर पण है। इस पुराण के रचनाकाल व अन्य
तथ्यों के अनुसंधान की अभी पूरी गुंजाइश है। अतः इसका
समय अधिक अवधीन नहीं माना जा सकता।
Comments
Post a Comment