ब्रह्मांड पुराण,,Brahmand purana

ब्रह्माण्डपुराणम्

विष्णुपुराण की सूची के अनुसार इस महापुराण का क्रमांक 18 वां (अंतिम) है। देवीभागवत ने इसे 6 वा पुराण माना है। इसकी श्लोकसंख्या- 12 हजार और अध्यायसंख्या- 109 है। नारदपुराण की विषय-सूची में वायु ने व्यास को इस पुराण का कथन किया इसलिये "वायवीय" ब्रह्मांड पुराण नाम कहा गया है। कुछ विद्वान् वायुपुराण और ब्रह्मांड पुराण को एक ही मानते हैं। उनके मतानुसार वायुपुराण की संस्कारित आवृत्ति ही ब्रह्मांडपुराण है।
डॉ. हाजरा का मत है कि दोनों पुराणों में बिंब-प्रतिबिब भाव
है। दोनों पुराणों में बहुत से श्लोक समान है। पार्टिजर व
विटरनित्स ने "ब्रह्माण्ड पुराण" को "वायुपुराण" का प्राचीनतर
रूप माना है किंतु वास्तविकता यह नहीं है। "नारदपुराण"
के अनुसार वायु ने व्यासजी को इस पुराण का उपदेश दिया
था। "ब्रह्मपुराण" के 33 वें से 58 वें अध्यायों तक व्रह्मांड
का विस्तारपूर्वक भौगोलिक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। प्रथम खंड में, विश्व का विस्तृत, रोचक व सांगोपांग भूगोल. दिया गया है। तत्पश्चात् जंबुद्वीप व उसके पर्वतों व नदियों का
विवरण, 66 वें से 72 वें अध्यायों तक है। इसके अतिरिक्त
भद्राश्च, केतुमाल, चंद्रद्वीप, किंपुरुषवर्ष, कैलास शाल्मलीद्वीप. कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप व पुष्करद्वीप आदि का विस्तृत विवरण है। इसमें ग्रहों, नक्षत्र-मंडलों तथा युगों का भी रोचक वर्णन है। इसके तृतीय पाद में विश्व-प्रसिद्ध क्षत्रिय वंशों का जो विवरण प्रस्तुत किया गया है, उसका ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व माना जाता है। "नारद-पुराण" की विपयसूची से ज्ञात होता है कि "अध्यात्मरामायण", "ब्रह्मांडपुराण" का ही अंश
है। किंतु उपलब्ध पुराण में यह नहीं मिलता। "अध्यात्म-रामायण" में वेदान्तदृष्टि से रामचरित्र का वर्णन है। इसके 20 वें अध्याय में  के कृष्ण आविर्भाव व उनकी ललित लीला का गान किया गया है। इसमें रामायण की कथा (अध्यात्म-रामायण के अंतर्गत) बड़े विस्तार के साथ 7 खंडों में, वर्णित है। इसमें 21 वे से 27 वे अध्याय तक के 1550 श्लोकों में परशुराम की कथा दी गई है। तदनंतर सगर व भगीरथ द्वारा गंगावतरण की कथा 48 वें से 57 वे अध्याय तक वर्णित है तथा 59 वें अध्याय में सूर्य व चंद्रवंशीय राजाओं का वर्णन है। विद्वानों का कहना है कि चार सौ ईस्वी के लगभग "ब्रह्मांडपुराण" का वर्तमान रूप निश्चित हो गया होगा इसमें "राजाधिराज'" नामक राजनीतिक शब्द का प्रयोग देख कर विद्वानों ने इसका काल, गुप्त-काल का उत्तरवर्ती या मौखरी राजाओं का समय माना है। महाराष्ट्र क्षेत्र का वर्णन इसमें आत्मीयता से वर्णन हुआ है, इसलिये कुछ विद्वानों का मत है कि यह पुराण नासिक-त्र्यंबक के समीप रचा गया है। इस पुराण में समाविष्ट हैं।
परंतु स्वतंत्र रूप से प्रचलित हुये निम्नलिखित ग्रंथ
गणेशकवच, तुलसीकवच, हनुमत्कवच,
सिद्धलक्ष्मीस्तोत्र, सीतास्तोत्र, ललितासहस्रनाम, सरस्त्रतीस्तोत्रम् अध्यात्मरामायण।

अनुमान है कि यह पुराण सन् 325 के आसपास रचा गया
है। 5 वीं शुताब्दी के प्रारंभ में भारतीय ब्राह्मणों ने जावा-सुमात्रा (यवद्वीप) में इस पुराण का प्रचार किया। वहां की स्थानीय कवि भाषा में इसका अनुवाद हुआ है तथा वह आज भी प्रचार में है। मूल पुराण इस अनुवादित पुराण की तुलना करने से पता चलता है कि दोनों के विषय समान हैं परंतु अनुवाद में भविष्यकालीन राजवंशों के वर्णन जोडे गये हैं।

Comments

Popular posts from this blog

ईशावास्योपनिषद 18 मंत्र

महाकवि दण्डी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व जीवन-चरित-

भर्तृहरि की रचनाएँ