गरुड़ पुराण,,, garud purana

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गरुडपुराण 18 पुराणों के क्रम में 17 वां पुराण है। यह
वैष्णव पुराण है, जिसका नामकरण विष्णु भगवान के बाहन
गरुड के नाम पर किया गया है। इसमें स्वयं विष्णु ने गरुड
को विश्व की सूष्टि का उपदेश दिया है उक्त नामकरण का
यही आधार है। यह हिन्दुओं का अत्यंत लोकप्रिय व पवित्र
पुराण है, क्यों कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् श्राद्धकर्म
के अवसर पर इसका श्रवण आवश्यक माना गया है। इसमें
अनेक विषयों का समावेश है, अतः यह भी "अग्नि-पुराण"
कोश की भांति पौराणिक महाकोश माना जाता है।
इसके दो विभाग हैं- पूर्व खंड व उतर खंड पूर्व खंड में
अध्यायों की संख्या 229 और उतर खंड में 35 है इसकी
श्लोक संख्या 18 हजार मानी गई है पर मत्स्य पुराण, नारद
पुराण व 'रिवा- माहात्मय' में संख्या 19 हजार मानी गयी है
किन्तु आज उपलब्ध पुराण में 7 हजार से कम श्लोकसंख्या
है। कलकता में प्रकाशित गरुड पुराण में 8800 श्लोक हैं।
वैष्णव पुराण होने के कारण इसका मुख्य ध्यान विष्णुपूजा,
वैष्णवत्रत, प्रायश्चित्त तथा तीर्थों के माहात्यवरण्णन पर केंद्रित रहा है। इसमें पुराण विषयक सभी तथ्यों का समावेश है और शक्ति-पूजा के अतिरिक्त पंचदेवोपासना (विष्णु, शिव,
दुर्गा, सूर्य व गणेश) की विधि का भी उल्लेख है। इसमें
रामायण, महाभारत व हरिवंश के प्रतिपाद्य विषयों की सूची
है तथा सृष्टि- कर्म, ज्योतिष, शकुनविचार, सामूहिक शस्त्र,
आयुर्वेद, छंद, व्याकरण, रत्नपरीक्षा व नीति के संबंध में भी
विभिन्न अध्यायों में तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं 'गरुड पुराण'
में याज्ञवल्क्य धर्मशास्त्र के एक बड़े भाग का भी समावेश
है तथा एक अध्याय में पशु-चिकित्सा की विधि व नाना
प्रकार के रोगों को हटाने के लिये विभिन्न प्रकार की औषधियों का वर्णन किया गया है इस पुराण में छंद-शास्त्र का 6 अध्यायों में विवेचन है और एक अध्याय में भगवद्गीता का भी सारांश दिया गया है। अध्याय 108 से 115 में राजनीति का विस्तार से विवेचन है तथा एक अध्याय में सांख्ययोग का निरूपण किया गया है। इसके 144 वें अध्याय में कृष्णलीला कही गई है तथा आचारकांड में श्रीकृष्ण की
रुक्मणी प्रभृति 8 पत्रियों का उल्लेख है, किन्तु उनमें राधा
का नाम नहीं है। इसके उत्तर खंड में, (जिसे प्रेतकल्प कहा
जाता है) मृत्यु के उपरान्त जीव की विविध गतियों का
विस्तारपूर्वक उल्लेख है। ब्रतकल्प में गर्भावस्था, नरक, यम,
यम-नगर का मार्ग, प्रेतगणों का वासस्थान प्रेतलक्षण प्रेतयोनि से प्रेतों का स्वरूप, मनुष्यों की आयु, यमलोक का विस्तार, सपिडीकरण का विधान, वृषोल्सर्ग विधान आदि विविध पारलौकिक विषयों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
प्रस्तुत पुराण में गया- श्राद्ध का विशेष रूप से महत्त्व प्रदर्शित किया गया है। आधुनिक शोध-पण्डितों ने इस पुराण की रचना का समय नवम शती के लगभग माना है परंतु इसका संकलन जनमेजय के काल में माना जाता है। डॉ. हाजरा के अनुसार इसका उद्भव-स्थान मिथिला है। इसमें याज्ञवल्क्य स्मृति के अनेक कथन, कतिपय परिवर्तन व पाठांतर के साथ संग्रहीत हैं। इसमें 107 वें अध्याय में 'पराशर-समृति' का सार 381 श्लोंको में दिया गया है।
       💐💐💐 संस्कृत विश्वकोश💐💐💐

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