भट्टनारायण,, वेणीसंहार के रचनाकार

 भट्टनारायण .. 7 वीं शती का उत्तरार्ध। ब्राह्मण कुल।

शांडिल्य गोत्र। कनौज से बंगाल जा बसे। "वेणी-संहार"

नामक नाटक के प्रणेता। इनके जीवन का पूर्ण विवरण प्राप्त

नहीं होता। इनको एकमात्र कृति "वेणीसंहार" उपलब्ध होती

है। इनका दूसरा नाम (या उपाधि) "मृगराजलक्ष्म" था। एक

अनुश्रुति के अनुसार बंगराज आदिशूर द्वारा गौड देश में

आर्य-धर्म की प्रतिष्ठा कराने के लिये बुलाये गये पंच ब्राह्मणों

में भटनारायण भी थे। राजा ने इने नाम मा मूल्य पर कुछ गाव 

दिये। कुछ इतिहासवेताओं का मत है कि अंगाल का

ठाकुर-राजवेश इन्हीं से प्रारंभ हुआ। "वेणी-संहार" के अध्ययन

से ज्ञात होता है कि ये वैष्णव संप्रदाय के कवि थे।

"वेणीसंहार" के भरतवाक्य से पता चलता है कि ये किसी

सहदय राजा के आस्थित रहे होंगे। पाक्षात्य पंडित स्टेन कोनो

के कथनानुसार वे राजा आदिशूर आदित्यसेन थे, जिनका समय

671 है। रमेशचंद्र मजूमदार भी माधवगुप्त के पुत्र

आदित्यसेन का समय 675 ई. के लगभग मानते हैं, जो

शक्तिशाली होकर खतेत्र हो गए थे। आदिशूर के साथ संबद्ध

होने के कारण, भट्टनारायण का समय 7 वीं शती का उत्तरार्ध

माना जा सकता है। विल्सन ने "वेणी-सहार" का रचना-काल

8 वी या 9 वीं शती माना है। परंपरा में एक श्लोक मिलता है।

'वेदबाणाङ्गशाके तु पोऽभूच्चादिशूरकः। वसुकर्मागके

शाके गौडे विप्रः समागतः"।। इसके अनुसार आदिशूर का

समय 654 शकाब्द (या 732 ई.) है पर विद्वानों ने छानबीन

करने के बाद आदिल्यसेन व आदिशूर को अभिन्न नहीं माना

है। बंगाल में पाल-वंश के अभ्युदय के पूर्व ही आदिशूर

हुए थे, और पाल-वंश का अभ्युदय 750-60 ई. के आस पास

हुआ था। "काव्यालंकार-सूत्र" में भट्टनारायण का उल्लेख

किया है। अतः इनका समय ई. 8 वीं शती का पूर्वार्ध सिद्ध

होता है। सुभाषित-संग्रहों में इनके नाम से अनेक पद्य प्राप्त

होते हैं जो "वेणी-संहार" में उपलब्ध नहीं होते। इससे ज्ञात

होता है कि "वेणी-संहार" के अतिरिक्त इनकी अन्य कृतियों

भी रही होगी। दंडी ने अपनी 'अवन्ति-सुंदरी कथा" में उल्लेख

किया है कि भट्टनारायण को 3 कृतियां है। प्रो. गजेंद्रगडकर

के अनुसार "दशकुमारचरित" को पूर्वपीठिका के रचयिता

भट्टनारायण ही थे। "जानकी-हरण' नामक नाटक की एक

पांडुलिपि की सूची इनके नाम से प्राप्त हुई है पर कतिपय

विद्वान् इस विचार के हैं कि ये प्रेथ किसी अन्य के है।

भट्टनारायण को एकमात्र "वेणी-संहार" का ही प्रणेता माना

जा सकता है।

"वेणी-संहार" में महाभारत के युद्ध को वर्ण्य-विषय बनाकर

उसे नाटक का रूप दिया गया है। अंत में गदा-युद्ध में

भीमसेन दुर्योधन को मार कर उसके रक्त से रेजित अपने

हाथों द्वारा द्रौपदी की वेणी (केश) का संहार (गूंथना) करता

है। इसी कथानक की प्रधानता के कारण कवि ने इसे

"वेणी-संहार" की संज्ञा दी। आलोचकों ने इनके "वेणी-संहार"

को नाट्य-कला की दृष्टि से दोषपूर्ण माना है पर इसका

कला-पक्ष या काव्य-तत्त्व सशक्त है। इनकी शैली पर कालिदास

माघ व बाण का प्रभाव है।


Comments

Popular posts from this blog

ईशावास्योपनिषद 18 मंत्र

महाकवि दण्डी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व जीवन-चरित-

भर्तृहरि की रचनाएँ