भट्टि

 समय 17वीं शती। “भटि-काव्य" या

"रावणवध-नामक महाकाव्य के प्रणेता। इन्होंने संस्कृत में

साथ काव्य लिखने की परंपरा का प्रवर्तन किया है। ये मूलतः

वैयाकरण व अलंकारशास्त्री हैं जिन्होंने सुकुमारमति के या

काव्य-रसिकों को व्याकरण व अलंकार की शिक्षा देने के

लिये अपने महाकाव्य की रचना की थी। उनके काव्य का

मुख्य उदेश्य है व्याकरण-शास्त्र के शुद्ध प्रयोगों का संकेत

करना, जिसमें वे पूर्णतः सफल हुए हैं।

कतिपय विद्वानों ने "भट्टि" शब्द को "भर्तृ' शब्द का

प्राकृत रूप मान कर उन्हें भर्तृहरि से अभिन्न माना है। डॉ.

बी, सी, मजूमदार ने 1904 ई. में 'जर्नल ऑफ द रॉयल

एशियाटिक सोसायटी' (पृ. 306 एफ) में एक लेख लिख

कर यह सिद्ध करना चाहा था कि भट्टि, मंदसौर- शिलालेख

के वसभट्टि तथा 'शतकत्रय' के भर्तृहरि से अभिन्न है। पर

इसका खंडन डा, कीथ ने, उसी पत्रिका में 1909 ई. में

लेख लिख कर किया था। (पृ. 455)। डॉ. एस. के. डे

ने अपने प्रेथ "हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर" में कीथ के

कथन का समर्थन किया है।

भट्टि के जीवन-वृत्त के बारे में कुछ भी जानकारी प्राप्त

नहीं होती किंतु अपने महाकाव्य के अंत में उन्होंने जो श्लोक

लिखा है, उससे विदित होता है कि भट्टि को वलभी-नरेश

श्रीधर सेन की सभा में अधिक सम्मान प्राप्त होता था।

शिलालेखों में वलभी के श्रीधर सेन संज्ञक 4 राजाओं का

उल्लेख मिलता है। प्रथम का काल 500 ई. के लगभग व

अंतिम का काल 650 ई. के आस-पास है। श्रीधर द्वितीय

के एक शिलालेख भट्टि नामक किसी विद्वान् को कुछ

भूमि दी जाने की बात उल्लिखित है। इस शिलालेख का

समय 610 ई. के आस-पास है। अतः महाकवि भट्टि का

समय 7 वीं शती के मध्य काल से पूर्व निश्चित होता है।

ये भामह और दंडी के पूर्ववर्ती हैं। विद्वानों ने इनकी गणना

अलंकारशास्त्रियों में की है।

भट्टि ने अपने महाकाव्य में काव्य की सरलता का निर्वाह

करते हुए पांडिल्य का भी प्रदर्शन किया है। उसमें महाकाव्योक्ति

सभी तत्वों का सुंदर निबंध है, और पात्रों के चरित्र-चित्रण

में उत्कृष्ट कोटि की प्रतिभा का परिचय है। यत्र-तत्र उक्ति-

वैचित्र्य के द्वारा भी भट्टि ने अपने महाकाव्य को सजाया है। इस

काव्य का प्रकाशन मल्लिनाथ की "जयमंगला" टीका के


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