भर्तृहरि
समयई , 7 वीं शती। एक संस्कृत कवि
इनके आविर्भाव काल के संबंध में मतभेद है। इनका
विश्वसनीय चरित्र भी उपलब्ध नहीं है। दंतकथाओं,
लोकगाथाओं तथा अन्य सामग्रियों से इनका जो चरित्र उपलब्ध
होता है वह इस प्रकार है।
ये उज्जयिनी के राजा, तथा 'विक्रमादित्य' उपाधि धारण
करनेवाले द्वितीय चंद्रगुप्त के बंधु थे। पिता-चंद्रसेन । पत्नी-
पिंगला ।
इन्होंने नीति, वैराग्य तथा श्रृंगार इन तीन विषयों पर क्रमशः
शतक-काव्य लिखे हैं। तीनों ही शतकों की भाषा रसपूर्ण
और सुंदर है।
उक्त शतकत्रय के अतिरिक्त, 'वाक्यपदीय' नामक एक
व्याकरण विषयक विद्वन्मान्य ग्रंथ भी भर्तृहरि के नाम पर
प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के
ये ही प्रवर्तक हैं। चीनी यात्री इत्सिंग के कथनानुसार इन्होंने
बौद्ध-धर्म ग्रहण किया था परंतु अन्य सूत्रों के अनुसार ये
अद्वैत वेदान्ताचार्य हैं। इनके जीवन से संबंधित एक किंवदन्ती
इस प्रकार है
एक बार भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ शिकार
खेलने के लिये जंगल में गये थे वन में बहुत समय तक
भटकने के बाद भी उनके हाथ कोई शिकार नहीं लगी।
निराश होकर दोनों घर लौट रहे थे, तब उन्हें हिरनों का एक
झुण्ड दिखाई दिया। झुण्ड के आगे एक मृग चल रहा था।
भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करने के लिये ज्यों ही अपने हाथ
का भाला ऊपर उठाया, पिंगला ने पति को कहा- "महाराज,
यह मृगराज 17 सौ हिरनियों का पति और पालनकर्ता है।
इसलिये आप उसका वध मत कीजिये। भर्तृहरि ने पत्नी की
बात नहीं मानी और उसने हिरन पर अचूक शूल फेंक कर
मारा। हिरन जमीन पर गिर पडा। प्राण छोडते-छोडते उसने
कहा- "तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूं
उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगीबाबा
को दो, मेरे नेत्र चंचल नारी को दो, मेरी त्वचा साधु-संतों
को दो, मेरे पैर भागने वाले चोरों को दो और मेरे शरीर
की मिट्टी पापी राजा को दो।"
हिरन की बात सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हुआ
हिरन का कलेवर घोडे पर लाद कर वह मार्गक्रमण करने
लगा। रास्तें मे गोरखनाथ से भेंट हुई। भर्तृहरि ने उन्हें सारा
किस्सा सुनाया, तथा उनसे प्रार्थना. की कि वे हिरन को जीवित
करें। गोरखनाथ ने कहा- "एक शर्त पर में इसे जीवनदान
दूंगा। इसके जीवित होने पर तुम्हें मेरा शिष्यत्व स्वीकार करना
पडेगा।" राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली। भर्तृहरि ने
वैराग्य क्यों ग्रहण किया यह बतलानेवाली और भी किंवदन्तियां है।
दंतकथाएं उन्हें राजा तथा विक्रमादित्य का ज्येष्ठ भ्राता
बताती हैं। किन्तु कतिपय विद्वानों का मत है कि उनके ग्रंथों
में राजसी भाव का पुट नहीं, अतः उन्हें राजा नहीं माना जा
सकता। अधिकांश विद्वानों ने चीनी यात्री इत्सिंग के कथन
में आस्था रखते हुए, उन्हें महावैयाकरण (वाक्यपदीय के
प्रणेता) भर्तृहरि से अभिन्न माना है। पर आधुनिक विद्वान्
ऐसा नहीं मानते। इनके ग्रंथों से ज्ञात होता है कि इन्हें ऐसी
प्रियतमा से निराशा हुई थी जिसे ये बहुत चाहते थे।
"नीति-शतक" के प्रारंभिक श्लोक में भी निराश प्रेम की
झलक मिलती है। किंवदंती के अनुसार प्रेम में धोखा खाने
पर इन्होंने वैराग्य ग्रहण किया था| इनके तीनों ही शतक
संस्कृत काव्य का उत्कृष्टतम रूप प्रस्तुत करते हैं। इनके काव्य
का प्रत्येक पद्य अपने में पूर्ण है, और उससे श्रृंगार, नीति
या वैराग्य की पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। इनके अनेक पद्य
व्यक्तिगत अनुभूति से अनुप्रणित हैं तथा उनमें आत्म-दर्शन
का तत्त्व पूर्णरूप से परिलक्षित है।
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