नारद पुराण
नारदपुराणाम्- (वृहत्रारदीयपुराणम्) - सनतकुमारों दवारा नारद को कचन किया जाने के कारण हसे नारद पराण कहते हैं।इस उपपुराण की श्लोकसंख्या 25 हजार बताई गई है, किन्तु उपलब्ध प्रति के केवल 18 हजार 101 श्लोक हैं। इसके दो भाग है- पूर्व भाग में 125 अध्याय है और उत्तर भाग में 82 अध्याय। पूर्वभाग में चार पाद हैं। उतर भाग अखंड है।
नारद पुराण में समाविष्ट विषय इस प्रकार है- गंगा-माहात्म,
भगीरथकृत गंगावतरण की कथा, धर्माखान, वापीकृपतडागादि की निर्मिति, तिथित्रत, दान, प्राय्चित, युगचतुष्टय- परिस्थिति, नाममाहात्य, सृष्टि-निरूपण, ध्यानयोग, मोक्षधमर्म-निरूपण, निवृत्ति-धर्म का वर्णन मंत्रसिद्धि मंत्रजप, दीक्षा-विधि, गायत्री-विधान, महा-विष्णुमल्त् का जपविधान, नृसिंहमंत्र हनुमन्मंत्र, महेश्वरमंत्र, दुर्गामित्र, एकादशी-माहात्मय के प्रसंग में रुक्मांगद-मोहिनी की कथा, पुरुषोत्तमक्षेत्रयात्रा, समुद्र-स्लान,राम-कृष्ण-सुभद्रादर्शन, पुण्करक्षेत्रमाहाल्य,मथुरा-वृंदावन माहात्म्यकुरुक्षेत्रमाहात्य,नर्मदातीर्थमाहात्य्य,बद्रीक्षेत्र ,रामेश्वर-माहात्य, आदि इस पुराणांतर्गत विषयों की विविधता को देखते हुए विद्वानों ने इसे ज्ञानकोश ही बताया है। ।
प्रस्तुत पुराण का काल ई 6 वीं शती शताब्दी के पूर्व का माना जाता है। अलु बेरुनी (7 वीं शती) ने इसका उल्लेख किया है। पद्मपुराण में इस पुराण को सात्विक कहा गया है। इस पुराण में एकादशी और श्रीविष्णु का माहात्म्य विशेष रू५ से है। अतः इसे वैष्णव पुराण माना जाता है।
नारद-पुराण ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ
है क्यों कि इसके 92 के 109 तक के अध्यायों मे पुरे
अठारह पुराणों की विस्तृत सूचि दी गई है। इस सूचि से
संबंधित पुराण का मूल भाग कौनसा है इस तथ्य का निश्चित
पता चला जाता है।
इस पुराण में अनेक विषयों का निरूपण है जिनमें मुख्य
हैं- मोक्षधर्म, नक्षत्र, व कल्प-निरूपण, व्याकरण, निरुक्त,
ज्योतिष, गृहविचार, मंत्रसिद्धि, देवताओं के मन्त्र, अनुष्ठान-विधि ।
अष्टादश-पुराण विषयानुक्रमणिका, वर्णाश्रम धर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित,सांसारिक कष्ट व भकतिद्वारा सुख। इसमें विष्णुभक्ति को ही मोक्ष का एक मात्र साधन माना गया है तथा अनेक अध्यायों में विष्णु, राम, हनुमान् कृष्ण, काली व महेश के मन्त्रों का विश्ववत् निरूपण है। सूत-शौनक संवाद के रूप में इस पुराण की रचना हुई है। इसके प्रारंभ में सृष्टि का संक्षेप वर्णन किया गया है। तदनेतर नाना प्रकार की धार्मिक कथाएं वर्णित हैं।
नारदपुराण तत्वज्ञानानुसार नारायण ही अंतिम तत्व है।
उन्हींको महाविष्णु कहते हैं। उन्हींसे ब्रह्मा-विष्णु-महेश की
उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार अखिल विश् में श्रीहरि समाये
हुए हैं उसी प्रकार उनकी शक्ति भी उस शक्ति को श्रीहरि
से पृथक् नहीं किया जा सकता। यह शक्ति कभी व्यक्त
स्वरूप में रहती है तो कभी अव्यक्त स्वरूप में। प्रकृति, पुरुष
और काल हैं उसके तीन व्यक्त स्वरूप ।प्राणिमात्र को त्रिविध दुःख भोगने ही पडते हैं किन्तु भक्तियोग द्वारा ईश्वर की प्राप्ति होने पर ये सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य का मन ही बंध और मोक्ष का कारण है। मनुष्य की विषयासक्ति है बंध। इस बंध के दूर होने पर सहज ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। मन का ब्रह्म से संयोग करना ही योग है। भक्तियोग द्वारा ब्रह्मलय साध्य होता है। वह मानव जीवन में भी एक अत्यंत आवश्यक तत्व है। उसी के द्वारा ईश्वरी कृपा का लाभ होता है और मनुष्य के इह-परलोक सुरक्षित होते हैं।
पुराणों में नारदीय पुराण के अतिरिक्त एक 'नारदीय उपपुराण' भी प्राप्त होता है। इसमें 38 अध्याय व 3600 श्लोक हैं। यह वैष्णव मत का प्रचारक एवं विशुद्ध सांप्रदायिक ग्रंथ है। इसमें पुराण के लक्षण नहीं मिलते। कतिपय विद्वानों ने इसी ग्रंथ को "नारद-पुराण" मान लिया है इसका प्रकाशन एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता से
"नारद-पुराण" के दो हिन्दी अनुवाद हुए हैं। 1) गीता
प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित और 2) रामचंद्र शर्मा द्वारा
अनूदित व मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ है।
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