भट्टोजी दीक्षित

 भट्टोजी दीक्षित -इ.स. 1570 से 16351 पिता-लक्ष्मीधर

भट्ट आंधप्रदेश के रहनेवाले, तथा विजयनगर के राजा के

आश्रित महाराष्ट्रीय ब्राह्मण। उनके दो पुर थे भट्टोजी तथा

रंगोजी। भट्टोजी की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता के सानिधा

में हुई। पिता की मृत्यु के पक्षात् वे प्रथम जयपुर तथा वहां

से काशी गये। काशी में उन्होंने शेषकृष्ण नामक गुरु के

निकट व्याकरण का अध्ययन किया। विद्याध्ययन पूर्ण करने

के पश्चात् इन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार किया। उसके बाद उन्होंने

सोमयाग किया। सोमयाग करने कारण उन्हें भट्टोजी "दीक्षित"

के नाम से संबोधित किया जाने लगा। इन्होंने पाणिनि की

अष्टाध्यायी की "सिद्धांत-कौमुदी' नामक ग्रन्थ के रूप में

पुनर्रचना की। व्याकरणशास्त्र के अध्ययन के लिये यह सिद्धात

कौमुदी अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस ग्रंथ ने व्याकरण

के अध्यापन क्षेत्र में नया मोड उपस्थित किया। भट्टोजी ने

अपने सिद्धांतकौमुदी- प्रथ पर स्वयं "प्रौढमनोरमा' नामक

टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त इन्होंने पाणिनि सूत्रों (अष्टाध्यायी

पर शब्दकौस्तुभ” नामक टीका लिखी है।

भट्टोजी वेदांतशास्त्र तथा धर्मशास्त्र के प्रगाढ पंडित थे।

व्याकरणशास्त्र के अतिरिक्त इन्होंने अद्वैतकौस्तुभ, आचारप्रदीप,

आदिकम्, कारिका, कालनिर्णयसंग्रह, गोत्रप्रवरनिर्णय, दायभाग,

तंत्राधिकारनिर्णय, श्राद्धकांड आदि 34 प्रेथ लिखे हैं।

भट्टोजी के वरिश्वर तथा भानु नामक दो पुत्र तथा वरदाचार्य,

नीलकंठ शुक्ल, रामाश्रम तथा ज्ञानेंद्र सरस्वती नामक शिष्य थे।

इनके पौत्र हरि दीक्षित ने "प्रौद्ध-मनोरमा' पर दो डोकाएं

लिखी हैं जिनके नाम हैं : बृहच्छब्दरत्र" व "लघुशब्दरत्न"।

इनमें से द्वितीय प्रकाशित है और सांप्रतिक वैयाकरणों में

अधिक लोकप्रिय है। "शब्दकौस्तुभ' पर 7 टीकाएं और

"सिद्धान्तकौमुदी' पर 8 टीकाएं प्राप्त होती हैं। "प्रौढ मनोरमा"

पर पंडितराज जगनाथ ने “मनोरमा-कुचर्दिनी' नामक

(खंडनात्मक) टीका लिखी है।

काशी के पंडित भट्टोजी को नागदेवता का अवतार मानते

हैं। नागपंचमी के दिन वहां के छात्र "बडे गुरु का, छोटे

गुरु का नाग लो नाग” कहते हुए नाग के चित्रों की बिक्री

करते है। बडे गुरु से पतंजलि तथा छोटे गुरु से भट्टोजी

की ओर संकेत है।

इनके संबंध में एक किंवदंती इस प्रकार प्रचलित हैइनकी, काशी में विद्यालय स्थापित करने की इच्छा अपूर्ण रह

जाने से, मृत्यु के बाद ये ब्रह्मराक्षस होकर अपने घर में ही

रहने लगे। परिवार के लोग इससे त्रस्त हो गये तथा उन्होंने

मकान छोड दिया। कुछ वर्षों के बाद काशी में विद्याध्ययन

के उद्देश्य से आये हुए दो ब्राह्मण घूमते घूमते उस मकान

के भीतर पहुंचे। उन्होंने छपरी पर भट्टोजी को बैठे हुए

देखा।

भट्टोजी ने उन दोनों से कुशल क्षेम पूछकर, उनके निवास

तथा भोजन की व्यवस्था की। दोनों ब्राह्मणों ने उस "पूत

महल" में 7-8 वर्ष रहकर भट्टोजी के मार्गदर्शन में 

व्याकरणशास्त्र का अध्ययन पूर्ण किया। तब भट्टोजी ने उन्हें 

अपना सत्य स्वरूप कथन किया। दोनों छात्रों ने जब अपने गुरु

 का शास्त्रविधि से क्रियाकर्म पूर्ण किया तब भट्टोजी को मुक्ति 

मिली।

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