भरद्वाज

 भरद्वाज - पिता- बृहस्पति । माता-ममता । इनके जन्म के बाद

ही इनके माता-पिता इन्हें छोडकर चले गये । उस अर्भक को

मरुत देवता ने उठा लिया तथा वे उसे दुष्यतपुत्र भ के

निकट ले गये। उस समय भरत द्वारा पुत्र प्राप्ति के लिये

मरुतूस्तोम नामक यज्ञ का आयोजन किया गया था मरुत् ने

वह शिशु भरत को अर्पण कर दिया। भरद्वाज बडे हुये तब

उन्होंने भरत के लिये एक यज्ञ किया। फलस्वरूप छठवां

मेंडल भरद्वाज तथा उनके वंशजों द्वारा रचित है। भरद्वाज की

ऋचायें आत्यंत ओजपूर्ण हैं। कुछ ऋचाओं का आशय इस

प्रकार है

"हम उत्तम वीरों सहित सहस्रों वर्षों तक आनंदपूर्वक

जीवित रहेंगे। हमारी देह पाषाणवत् कठिन हो।"

भरद्वाज गोभक्त थे। ऋ्वेद के छठवें मंडल का 28 वां

सूक्त 'गोसूक्त' नाम से विख्यात है जिसकी एक ऋचा का

आशय इस प्रकार है

अनेक जातियों की कल्याणप्रद सवत्स गायें हमारे गोशालाओं

में विद्यमान रह कर उप.काल में इंद्र के लिये दुग्ध-स्वण करें।

इनके वेदाध्ययन के संबंध में एक कथा इस प्रकार है

संपूर्ण वेदों का अध्ययन करने का प्रयास असफल होने


पर भरद्वाज ने इंद्र की स्तुति की। उनकी स्तुति से इन्द्र प्रसन्न

हुए तथा उन्हें सौ-सौ वर्षों के तीन जन्म प्रदान किये। तीनों

जन्म इन्होंने वेदाध्ययन करने में व्यतीत किये। जब तीसरे

जन्म के अंतिम दिनों में भरद्वाज मरणासन्न स्थिति में थे, तब

इन्द्र उनके निकट पधारे और उन्होंने भरद्वाज से पूछा- "यदि

तुम्हें और एक जन्म की प्राप्ति हुई तो तुम क्या करोगे"।

"मैं वेदाध्ययन करूंगा"।

भरद्वाज ने उत्तर दिया

तब इन्द्र ने तीन पर्वतों का निर्माण किया तथा प्रत्येक

पर्वत की एक-एक मूट्ठी मिट्टी लेकर तथा उसमें से एक-एक

कण भरद्वाज को दिखाकर कहा "वेदों का ज्ञान इन तीन

पर्वतों के वरावर है तथा तुमने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह

इन तीन कणो प्राप्ति होने पर भी पूर्ण वेदाध्ययन नहीं कर 

सकोगे "

बराबर है। अतः तुम एक और जन्म की

इंद्र द्वारा परावृत्त किये जाने पर भी भरद्वाज ने सी

वर्षों के एक और जन्म की मांग की। उनकी ज्ञाननिष्ठा देखकर

इन्द्र अत्यंत प्रसन्न हुए तथा सरल उपाय से वेदज्ञान प्राप्ति

के लिये सावित्राग्निविद्या भरद्वाज को सिखलाई। इस प्रकार

भरद्वाज वेदज्ञाता हुए।



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