कूर्म पुराण,, संस्कृत विश्वकोश 💐
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कूर्मपुराण अठारह पुराणों के क्रमानुसार 15 वां पुराण है।
समुद्रमंथन के समय विष्णु भगवान की स्तुति करने वाले
ऋषियों को कुर्म का अवतार लिये विष्णु ने यह पुराण सुनाया
इस लिये इसे कूर्म पुराण कहा जाता है। पंचलक्षणयुक्त इस
पुराण में विष्णु के अवतारों की अनेक कथाएं हैं। इसके दो
खण्ड हैं। पूर्वार्ध और उत्तरार्ध । विष्णु पुराण के अनुसार
इसमें 17 हजार तथा मत्स्य पुराण के अनुसार 18 हजार
श्लोक होने चाहिये, किन्तु केवल 6 हजार श्लोकों की संहिता
उपलब्ध है। नारदसूची के अनुसार इस पुराण की ब्राह्मी,
भागवती, सौरी तथा वैष्णवी- ये चार संहिताएं हैं किन्तु संप्रति
केवल ब्राह्मी संहिता ही उपलब्ध है।
हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार इस पुराण का कालखण्ड ई
2 री शताब्दी है; पर पुराण निरीक्षक काळे इसे इ.स. 500
से पूर्व काल का मानते हैं इसमें पाशुपत का प्राधान्य होने
से कुछ विद्वानों ने इस का समय 6-7 वीं शती निर्धारित
किया है। इसमें वैष्णव और शैव दोनों विषयों का समावेश
है। शंकरमाहात्म्य, शिवलिंगोत्पत्ति, शंकर के 28 अवतार के
अलावा विष्णुमाहात्म्य, नक्षत्र, सूर्य-चन्द्र के ्रमण व मार्ग,
ईश्वरगीता, व्यासगीता एवं गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी के
आचार धर्मों का विवेचन है। डॉ. हाजरा के मतानुसार यह
पांचरात्र मत का प्रतिपादक प्रथम पुराण है इ.स. 1564-1596कालखण्ड में तिन्काशी के राजा अतिवीर राम पांड्य ने कूर्मपुराण का तमिल अनुवाद किया। इसका प्रथम प्रकाशन सन 1890 ई. में नीलमणि मुखोपाध्याय द्वारा" "बिल्वियोथिका इण्डिका में हुआ था, जिसमें 6 हजार श्लोक थे प्रस्तुत पुराण में भगवान् विष्णु को शिव के रूप में तथा लक्ष्मी को गौरी की प्रतिकृति के रूप में वर्णित किया गया है। शिव को देवाधिदेव के रूप में वर्णित कर उन्हीं की कृपा
से कृष्ण को जांववती की प्राप्ति का उल्लेख है। यद्यपि इसमें शिव को प्रमुख देवता का स्थान प्राप्त है फिर भी ब्रह्मा, विष्णु व महेश में सर्वत्र अभेद स्थापित किया गया है तथा उन्हें एक
ही ब्रह्म का पृथक् पृथक् रूप माना गया है इसके उत्तर
भाग में "व्यासगीता" का वर्णन है जिसमें गीता के ढंग पर
व्यास द्वारा पवित्र कमों व अनुष्ठानों से भगवत्साक्षात्कार का
वर्णन है। इसके एक अध्याय में सीताजी की ऐसी कथा
वर्णित है जो रामायण से भिन्न है। इस कथा के अनुसार
सीता को अग्निदेव ने रावण से मुक्त कराया था। प्रस्तुत
पुराण के पूर्वार्ध, (अध्याय 12) में महेश्वर की शक्ति का
अत्यधिक वैशिष्ट्य प्रदर्शित किया गया है और उसके चार
प्रकार माने गये हैं- शांति, विद्या, प्रतिष्ठा एवं निवृत्ति । व्यासगीता के 11 वें अध्याय में पाशुपत योग का विस्तारपूर्वक वर्णन है तथा उसमें वर्णाश्रम धर्म व सदाचार का भी विवेचन है।
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