भरतमुनि - भारतीय काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र व अन्य ललित
कलाओं के आद्य आचार्य । इनका सुप्रसिद्ध ग्रंथ है “नाट्यशास्त्र",
जो अपने विषय का “महाकोश" है। इनका समय अद्यावधि
विवादास्पद है। डा. मनमोहन घोष ने "नाट्यशास्त्र" के
आंग्लानुवाद की भूमिका में भरतमुनि को काल्पनिक व्यक्ति
माना है। (1950 ई. में रॉयल एशियाटिक सोसायटी बंगाल
द्वारा प्रकाशित) किन्तु अनेक परवतीं प्रथों में उनका उल्लेख
होने के कारण यह धारणा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है। महाकवि
कालिदास ने अपने नाटक "विक्रमोर्वशीय" में उनका उल्लेख
किया है (2-18)| अश्वघोषकृत "शारिपुत्र-प्रकरण' पर
नाठाशास्त्र" का प्रभाव परिलक्षित होता है। अश्वघोष का समय
विक्रम की प्रथम शती है। अतः भरत मुनि का काल, विक्रम
पूर्व सिद्ध होता है। इन्हीं प्रमाणों के आधार पर कतिपय
विद्वानों ने उनका समय वि.पू. 500 ई. से 100 ई. तक
माना है। हरप्रसाद शास्त्री ने इनका आविर्भाव काल ईसा पूर्व
2री शती माना है, जब कि प्रभाकर भांडारकर और पिशेल
के मतानुसार इनका काल क्रमशः चौथी और छटवीं शती है।
एस.के. डे. का कहना है कि मूल 'नाट्यशास्त्र" में परिवर्तन
होते रहे हैं और उसका वर्तमान रूप उसे ई.8वीं शती में
प्राप्त हुआ होगा।
भरतमुनि के दो नाम मिलते हैं। वृद्ध भरत या
आदिभरत तथा भरत। रचनाएं भी दो हैं। नाट्यवेदागम तथा
नाट्यशास्त्र। नाट्यवेदागम को द्वादशसाहस्री और नाट्यशास्त्र
को षट्साहस्री कहा गया है। द्वादशसाहस्री संभवतः वृद्धभरत
की रचना हो। अब इसके केवल 36 अध्याय उपलब्ध हैं।
वृद्धभरत रचित श्लोकों को निश्चयपूर्वक पहचानना अशक्यप्राय
है। शारदातनय का कथन है कि दोनों रचनाएं एकसाथ ही
लिखी गई हैं तथा छोटी रचना केवल संक्षेप है।
"नाट्यशास्त्र" सबसे पुरातन संस्कृत रचना है। उसमें न
ऐंद्र व्याकरण तथा यास्काचार्य के उद्धरण है, न पाणिनि के।
भाषा प्रयोग भी कुछ आर्ष हैं। विषयचर्चा भी आर्ष पद्धति
की है। यही कारण है कि उसका लेखक, "मुनि" की उपाधि
से सादर निर्दिष्ट है। भरतमुनि को कहीं कहीं सूत्रकृत भी
कहा गया है। पुराणों की कालगणना के अनुसार इनका समय
बहुत प्राचीन होता है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि
"नाट्यशास्त्र", रामायण महाभारतादि के समय या उसके अनन्तर
की रचना हो सकती है। सूत्रकाल के बाद ही जब शास्त्र
विवरण छन्दोबद्ध होने लगा तब इसकी रचना हुई होगी।
भरत मुनि बहुविध प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ज्ञात होते हैं। उन्होंने
नाट्यशास्त्र, संगीत, काव्यशास्त्र, नृत्य आदि विषयों का अत्यंत
वैज्ञानिक व सूक्ष्म विवेचन किया है। उन्होंने सर्वप्रथम चार
अलंकारों का विवेचन किया था- उपमा, रूपक, दीपक व
यमक। नाटक को दृष्टि में रखकर उन्होंने रस का निरूपण
किया है, और अभिनय की दृष्टि से 8 ही रसों को मान्यता
दी है। उनका रसनिरूपण अत्यं प्रौढ व व्यावहारिक है। इसी
प्रकार संगीत के संबंध में भी उनके विचार अत्यंत प्रौढ सिद्ध
होते हैं।
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