किरातार्जुनीयम्,, महाकवि भारवि

किरातार्जुनीयम्
महाकवि-भारवि-रचित प्रख्यात महाकाव्य।
इसका कथानक "महाभारत" पर आधारित है। इन्द्र व शिव
को प्रसन्न करने के लिये की गई अर्जुन की तपस्या ही इस
महाकाव्य का वर्ण्य विषय है जिसे कवि ने 18 सों में
विस्तार से लिखा है।
संस्कृत साहित्य के पंच महाकाव्यों में किरातार्जुनीय की
गणना होती है। इसकी कथा का प्रारंभ द्यूतक्रीडा में हारे हुए
पांडवों के द्वैतवन में निवास काल से हुआ है। युधिष्ठिर द्वारा
नियुक्त किया गया वनेचर (गुप्तचर) उनसे आकर दुर्योधन
की सुंदर शासन-व्यवस्था व रीति-नीति की प्रशंसा करता है।
शत्रु की प्रशंसा सुनकर द्रौपदी का क्रोध उबल पड़ता है।
वह युधिष्ठिर को कोसती हुई उन्हें युद्ध के लिये प्रेरित करती
है। द्वितीय सर्ग में द्रौपदी की बातें सुनकर उनके समर्थनार्थ
भीम कहते हैं कि पराक्रमी पुरुषों को ही समृद्धियां प्राप्त होती
है। युधिष्ठर उनके विचार का प्रतिवाद करते हैं। सर्ग के अंत
में व्यास का आगमन होता है। तृतीय सर्ग में युधिष्ठिर व
महर्षि व्यास के वार्ताक्रम में अर्जुन को शिव की आराधना
कर पाशुपतास्त्र प्राप्त करने का आदेश होता है। व्यासजी
अर्जुन को योगविधि बतला कर अंतर्धान हो जाते हैं और
उनके साथ अर्जुन व यक्ष प्रस्थान करते हैं। चतुर्थ सर्ग में
इंद्रकील पर्वत पर अर्जुन व यक्ष का प्रस्थान एवं शरद् ऋतु
का वर्णन। पंचम सर्ग में हिमालय का वर्णन व यक्ष द्वारा
अर्जुन को इंद्रियों पर संयम करने का उपदेश। सर्ग 6 में
अर्जुन संयतेंद्रिय होकर घोर तपस्या में लीन हो जाते है।
उनके व्रत में विघ्न उपस्थित करने हेतु इन्द्र द्वारा अप्सराये
भेजी जाती हैं। सर्ग 7 में गंधवों व अप्सराओं द्वारा अर्जुन
की तपस्या में विघ्न करने का प्रयास। वनविहार व पुष्पचयन
का वर्णन । सर्ग 8 में अप्सराओं की जलक्रीडा का कामोद्दीपक
वर्णन । सर्ग 9 में संध्या, चंद्रोदय, मान, मान-भंग व दूती-प्रेषण
का मोहक वर्णन। सर्ग 10 में अप्सराओं की असफलता व
प्रयाण। सर्ग 11 में अर्जुन की सफलता देखकर इन्द्र मुनि
का वेश धारण कर आते हैं और उनकी तपस्या की प्रशंसा
करते हैं। वे अर्जुन से तपस्या का कारण पूछते हैं और शिव
की आराधना का आदेश देकर अंतर्धान हो जाते हैं। सर्ग
12 में अर्जुन प्रसन्नचित्त होकर शिव की आराधना में लीन
हो जाते है। तपस्वी लोग उनकी साधना से व्याकुल होकर,
शिवजी के पास जाकर उनके बारे में बतलाते हैं। शिव उन्हें
विष्णु का अंशावतार बतलाते हैं। अर्जुन को देवताओं का
कार्य साधक जानकर, मूक नामक दानव शूकर का रूप धारण
कर उन्हें मारने के लिये आता है। पर किरात वेशधारी शिव
व उनके गण उनकी रक्षा करते है। सर्ग 13 में एक वराह
अर्जुन के पास आता है। उसे लक्ष्य कर शिव व अर्जुन
दोनों बाण मारते हैं। शिव का किरात-वेशधारी अनुचर आकर
कहता है कि शूकर उसके बाण से मरा है, अर्जुन के बाण
से नहीं। सर्ग 14-15 में अर्जुन व किरात वेशधारी शिवजी
के घनघोर युद्ध का वर्णन। सर्ग 16-17 में शिव को देखकर
अर्जुन के मन में तरह तरह का संदेह उठना व दोनों का
मल्लयुद्ध। सर्ग 18 में अर्जुन के युद्ध-कौशल्य से शिवजी.
प्रसन्न होते हैं व अपना वास्तविक रूप प्रकट कर देते हैं।
अर्जुन उनकी प्रार्थना करते हैं तथा शिवजी अर्जुन को पाशुपतास्त्र प्रदान करते हैं। मनोरथ पूर्ण हो जाने पर अर्जुन अपने भाइयों
के पास लौट जाते हैं।
प्रस्तुत "किरातार्जुनीयम्" महाकाव्य का प्रारंभ "श्री" शब्द
से होता है, और प्रत्येक के अंत में "लक्ष्मी” शब्द प्रयुक्त
है, अतः इसे लक्ष्मीपदांक कहते हैं। कवि ने एक अल्प
कथावस्तु को इसमें महाकाव्य का रूप दिया है। प्रस्तुत
महाकाव्य के नायक अर्जुन धीरोदात्त है, और प्रधान रस वीर
है। अप्सराओं का विहार श्रृंगार रसमय है, जो अंग रूप में
प्रस्तुत किया गया है। महाकाव्यों की परिभाषा के अनुसार
इसमे संध्या, सूर्य, रजनी आदि का वर्णन है, और वस्तु-व्यंजना
के रूप में क्रीडा, सुरत आदि का समावेश किया गया है।
"किरातार्जुनीयम्" में कई स्थानों पर क्लिष्टता आने के कारण
उसे ठीक समझने में विद्वानों की भी कष्ट होते है। टीकाकार
मल्लिनाथ ने संभवतः इसी कारण भारवि कवि की वाणी को
कठोर कवच परंतु मधुर स्वाद वाले नारियल (नारिकेल फल)
की उपमा दी है।

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